सीधी

बतकही:यही जिंदगी का झटका है, जो महसूस धीमे होता है लेकिन लगता जोरों से है…

बतकही:यही जिंदगी का झटका है, जो महसूस धीमे होता है लेकिन लगता जोरों से है…

उनका फलाने से मिलना और हमारा तरसना…

सीधी:- फलाने से, फलाने से, फलाने से मिले….हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे….।
इस जिंदगी का खेल अजब है। अभी तक हम सोचते थे कि हम जीवन के इस बहुरूपी खेल के तेंदुलकर हैं, लेकिन उनके फलाने से मिलने और हमें खबर तक न लगने देने से जाहिर हो गया कि हम बेचारे काम्बली से ज्यादा कुछ नहीं है। जिसने जवानी में इतने मजे उड़ाए कि अब बुढ़ापा बदहाल हो रहा है।

 

जिंदगी क्या है… एक भ्रम के अलावा कुछ नहीं।
एक जमाना था जब हम मैदान-ए-इश्क में अपने आप को राजा भोज समझते थे, लेकिन आज हमारी औकात उनके दास गंगू से अधिक नहीं है।यही जिंदगी का झटका है, जो महसूस धीमे होता है, लेकिन लगता जोरों से है।

 

जब हम जवान थे, तब हमारी अम्मा समझाती थी… संभल के चल छोरे… गर जवानी में दिए झटके, तो अच्छे-अच्छों के उड़ जाते हैं फटके… लेकिन जवानी दीवानी होती है और इसी भटकती जवानी के जलवे हम आजकल रोज शहर की सड़कों पर देखते हैं।एक सच्ची बात कहें कि जब हम हमारे जमाने की और आज की जवानी का फर्क देखते हैं तो हमारा जी बांस के जंगल जैसा धूं धूं जल उठता है।

 

और हम इस दुनिया को बनाने वाले को उलहाना देकर कहते हैं… अरे ओ सिरजनहार, तूने हमें पचास साल बाद पैदा क्यों नहीं किया।
आज जब हमारे पोपल मुंह, चांदी जैसे बाल और सोने जैसे गालों को देखकर कोई चंद्रमुखी, मृगलोचनी अंकल जी नमस्ते कहकर गुजरती है तो दिल पर मानो छुरी चलने लगती है। सच कहें अब इस बुढ़ापे में हमें एक भयानक बीमारी लग गई है… जिसका नाम है तरसना।

 

इस बीमारी का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं है। यह बीमारी उन बेचारों को लगती है और जो पुराने आशिक रहे हों। यह पुराने इश्क वालों को बड़ा तरसाती है… ठीक फुटबॉल के खिलाड़ी की तरह,जिसके बुढ़ापे में टखनों और घुटनों में दर्द रहता है। आप तो जानते हैं कि पुराने जमाने के पहलवान, फिल्मी हीरोइन और विफल प्रेमियों का सबसे बड़ा दुश्मन बुढ़ापा ही होता है। बुढ़ापा उन्हें बात-बात को तरसाता है। अब आप माने या ना माने जिन-जिन चीजों का लुत्फ हमने जवानी में उठाया, मसलन गोंद के लड्डू, चाशनी के मालपुए, हेलन का कैबरे, दुर्रानी के छक्के, फिल्मी तारिका बबीता की जवानी, गुड़ की गजक, मीर के शेर, नजीर के गीत, अख्तरी बाई की गजलें, रफी के नगमे, मीना की फिल्में, अनीता का प्रेम और ठंडाई… इन सारी चीजों को बरतने के लिए कुछ डॉक्टर ने और बाकी चीजों पर श्रीमती जी ने पाबंदी लगा रखी है।
और कसम से इन सब चीजों के लिए हम बेहद तरसते रहते हैं।

 

अब तो हम यही कहते हैं कि… यारों किसी को भी जब आ जाए बुढ़ापा, हर बात को हर रात को तरसाए बुढ़ापा, अपनी तो यह दुआ है सुन ले मेरे करतार, दुश्मन को भी मेरे कभी न आए बुढ़ापा…।
बुढ़ापे का दूसरा नाम है तरसना और आजकल हम सुबह शाम तरसते ही रहते हैं। अब तो ये हाल हो गया है कि उनके आने-जाने का हमें पता भी नहीं चलता। वो कब आते हैं और किस-किस अलाने-फलाने से मिल जाते हैं… और हमें जब पता लगता है तो हम हाय-हाय करके तरसते रह जाते हैं।

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